Monday, 5 December 2011

beech ka hissa

...बीच का हिस्सा इसलिए क्योंकि ना तो कुछ शुरू से शुरू है ना अंत पर ख़तम. जन्म लेने से मरने के बीच का हिस्सा जिंदगी है. जो भी मैं कहती हूँ और आने वाले समय में मैं जो भी कहूँगी उसकी ना तो कोई शुरुआत होगी ना कोई मुकम्मल अंत. इस बीच के हिस्से की आधी अधूरी बातों जैसी ज़िन्दगी ट्रेन के उस सफ़र जैसी है , जब बीच सफ़र अचानक नींद खुलती है और आप हड़बड़ा कर उठते हैं और सोचते हैं की कहीं मेरा स्टेशन निकल तो नहीं गया? ये रात की नींद पूरी हुई है या दोपहर की नींद टूटी है? इस हडबडाहट में आस पास बिखरा सामान समेटते हुए लगता है कुछ छूट रहा है. 'यहाँ से सफ़र शुरू किया और वहां पहुंचना है' की दौड़ में बीच का सफ़र छूट जाता है.
जो कुछ शुरू हुआ है, कहीं ना कहीं ख़त्म ज़रूर होगा. लेकिन इस बीच ये जो समय गुज़र रहा है...इसका क्या? इस बीच जो घट रहा है अगर मंज़िल तक ना पहुंचा, भटक गया कहीं रस्ते में, तो?  इन आधे अधूरे लम्हों की कहानी कौन कहेगा?